लेखक: मोहम्मद तौक़ीर रहमानी
इस्लाम सिर्फ एक धर्म नहीं, बल्कि एक संपूर्ण और प्राकृतिक जीवन प्रणाली है। यह इंसान को ज़िंदगी के हर मोड़ पर सही राह दिखाता है और उसकी हर ज़रूरतों को ऐसे पूरा करता है जैसे एक माँ अपने बच्चे की परवरिश करती है। यह मज़हब इंसान को न तो तन्हाई और सन्यास की अंधेरी दुनिया में ले जाता है और न ही उसे बेलगाम आज़ादी की खाई में गिरने देता है। बल्कि, यह इंसान को संतुलन, समझदारी और मिडिल पाथ यानी मध्य मार्ग सिखाता है जिससे दिल को सुकून और समाज को न्याय मिलता है।
इस्लाम यह मानता है कि इंसानी ज़िंदगी में खुशी और ग़म दोनों आते हैं और दोनों ही ज़रूरी हैं। मुश्किल वक़्त में यह मज़हब सब्र और आपसी मदद की सीख देता है, तो खुशियों के मौकों पर भी यह सिर्फ अकेले ख़ुश होने की नहीं, बल्कि सबको साथ लेकर चलने का शिक्षा प्रदान करता है। लेकिन सवाल यह उठता है: क्या यह मुमकिन है कि एक ही समाज में रहने वाले सारे लोग—अमीर और ग़रीब, मज़बूत और कमज़ोर—एक साथ, एक ही तरह से खुशी मना सकें?
ये सवाल सिर्फ भावुक नहीं है, बल्कि सोचने और अमल करने की बात भी है। सोचिए, एक मज़दूर जो दिन भर मेहनत करता है लेकिन दो वक़्त की रोटी भी मुश्किल से कमा पाता है; एक विधवा जिसके चूल्हे में ईंधन तक नहीं; एक अनाथ बच्चा जिसे सालों से अच्छे खाने का स्वाद नसीब नहीं हुआ—क्या ये सब भी उन्हीं लोगों के साथ मिलकर ईद मना सकते हैं जिनके पास करोड़ों की दौलत है? शायद यह नामुमकिन सा लगे। लेकिन यहीं इस्लाम की रहमत और समझदारी सामने आती है।
इस्लाम की ईद केवल एक रस्म नहीं है, बल्कि यह इंसाफ, बराबरी और इंसानियत की भावना पर बनी एक खूबसूरत परंपरा है। ईद का दिन ऐसा दिन है जब हर मुसलमान—चाहे वो अमीर हो या ग़रीब—एक साथ अल्लाह का शुक्र अदा करता है और मिल-बैठकर खुशियां मनाता है। इस्लाम ने इस दिन को सबके लिए ख़ास बना दिया है। ज़कात, फित्रा, क़ुर्बानी, दावत और मिलजूल—इन चीज़ों का मक़सद यही है कि कोई अकेलापन महसूस न करे, कोई भूखा न रहे, और कोई खुशी से महरूम न रह जाए।
इस्लाम कहता है कि सच्ची खुशी अकेले कि खुशी में नहीं होती, बल्कि जब आप अपनी खुशी में दुसरों को भी शामिल करें, तभी वह असली खुशी होती है। ईद का असली मक़सद यही है कि हर कोई शामिल हो—ना कोई छोटा, ना कोई बड़ा। इस्लाम में अमीरों को ज़िम्मेदारी दी गई है कि वो ग़रीबों तक जाएं, और ग़रीबों को इज़्ज़त दी गई है कि वो भी इस जश्न में पूरे आत्म-सम्मान के साथ शरीक हों।
इसलिए, ईद सिर्फ एक त्योहार नहीं बल्कि एक पैग़ाम है—भाईचारे का, इंसाफ का, बराबरी का। यह ऐसा संदेश है जो अरब के रेगिस्तान की रेत से उठा और आज पूरी दुनिया को इंसानियत और मोहब्बत का रास्ता दिखा रहा है।

इस्लाम हमें सिखाता है कि असली खुशी सिर्फ खुद हँसने में नहीं, बल्कि दूसरों के चेहरों पर मुस्कान लाने में है। और जब एक दिन ऐसा हो कि इंसान घमंड और बडकपन का एहसास छोड़कर एक मिस्कीन (ग़रीब) के साथ बैठ जाए, तो यक़ीन मानिए, यही सच्चा मज़हब है—जो इंसानों की भलाई के लिए अल्लाह ने भेजा है।
इस्लाम का प्रणालीगत सहयोग: ग़रीब की आत्मसम्मान और समाज की ज़िम्मेदारी
इस्लाम केवल कुछ इबादतों और रस्मों का नाम नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण और प्राकृतिक जीवन-व्यवस्था है जो इंसानी फितरत के हर पहलू से मेल खाती है। इस्लाम हमें केवल अल्लाह की इबादत का रास्ता नहीं दिखाता, बल्कि समाज में इंसाफ, आर्थिक संतुलन और इंसानी इज़्ज़त की भी हिफ़ाज़त करता है। यह धर्म इंसान को सिर्फ खुद में डूबा रहने वाला साधु नहीं बनाता, बल्कि उसे समाज का ज़िम्मेदार और भलाई करने वाला व्यक्ति बनाता है। यही वजह है कि इस्लाम में चाहे धार्मिक त्यौहार हो या आम दिन, ग़रीबों, यतीमों, ज़रूरतमंदों और बेबस लोगों को नज़रअंदाज़ नहीं किया गया, बल्कि उन्हें ध्यान का केंद्र बनाया गया।
चाहे रमज़ान हो या ईदुल-फित्र, ईदुल-अज़हा हो या आम दिन, इस्लाम का सामाजिक नज़रिया हर मौके पर ग़रीबों की ज़रूरत और इज़्ज़त का खयाल रखता है। रमज़ान में जहां आत्मा की सफ़ाई का शिक्षा दिया जात है, वहीं फित्रा और सदक़ा के ज़रिए भूखों को खाना, ज़रूरतमंदों को कपड़े और ग़रीबों को ईद की खुशी में शामिल करने का बेहतरीन इंतज़ाम किया गया है। यह केवल पैसे से मदद नहीं है, बल्कि एक तहज़ीबी पैग़ाम है: “सच्ची खुशी वही है जो बाँटी जाए, और इबादत तभी मुकम्मल मानी जाती है जब उसमें समाज की ज़िम्मेदारी भी शामिल हो।”
ईदुल-अज़हा के मौके पर इस्लाम ने इस सहयोग की भावना को और ऊँचा किया है। क़ुर्बानी, जो एक रूहानी इबादत है, अपने अंदर भाईचारा, बराबरी और त्याग का सामाजिक संदेश भी छुपाए हुए है। क़ुर्बानी के गोश्त को तीन हिस्सों में बाँटना सिखाया गया है—जिसमें एक हिस्सा खासतौर पर ग़रीबों और ज़रूरतमंदों के लिए रखा जाता है। यह सिर्फ मांस बाँटना नहीं, बल्कि एक सामाजिक तामीर है—एक नैतिक ऊँचाई है जहां ग़रीब की खुद्दारी को बरक़रार रखते हुए उसकी ज़रूरत को पूरा किया जाता है—बिना यह महसूस कराए कि वह किसी का मोहताज है।
इस्लाम की यही ख़ूबसूरती है कि उसने ग़रीब की इज़्ज़त-ए-नफ़्स (आत्म-सम्मान) की हिफ़ाज़त की और अमीर को सिर्फ दान देने वाला नहीं, बल्कि समाज की भलाई का ज़िम्मेदार इंसान बनाया। इस्लाम का यह सिस्टम केवल खैरात या दान पर नहीं चलता, बल्कि यह एक “फ़र्ज़” है—अगर इसे न निभाया जाए तो इंसान की इबादत तक अल्लाह के यहां कबूल नहीं होती। ज़कात—जो इस्लाम के पांच बुनियादी स्तंभों में से एक है—का मक़सद यही है कि अमीर की दौलत में ग़रीब का हिस्सा तय हो। और अगर कोई दौलतमंद अपने माल से समाज के ज़रूरतमंदों का खयाल नहीं रखता, तो उसका सजदा भी रिया कहलाता है—दिखावे की इबादत, जो न केवल नामंज़ूर है, बल्कि सज़ा का कारण भी बन सकती है।
यही वजह है कि इस्लाम के नज़दीक सदक़ा सिर्फ पैसा देना नहीं, बल्कि एक नैतिक कर्तव्य है, एक तहज़ीबी ज़रूरत है, और एक रूहानी रौशनी है। इस्लाम ने फकीरों को भीख माँगने वाला नहीं, बल्कि हक़दार बताया है। और दौलतमंद को सिर्फ माल का मालिक नहीं, बल्कि एक अमानतदार, एक ज़िम्मेदार और समाज का निर्माणकर्ता क़रार दिया।
इस्लाम का पैग़ाम साफ़ है: अगर कोई इंसान भूखा है, तो यह सिर्फ उसकी परेशानी नहीं, बल्कि पूरी उम्मत की कोताही है। अगर कोई तन्हा और बेसहारा है, तो यह उसकी कमी नहीं, बल्कि समाज की लापरवाही का नतीजा है। इस्लाम ऐसी लापरवाही को गुनाह मानता है, और एक ऐसा समाज चाहता है जहां एक-दूसरे की मदद, सामाजिक ज़िम्मेदारी और भाईचारा सिर्फ बातें नहीं, बल्कि हक़ीक़त हो। इस्लाम में दौलत जमा करना कोई फख़्र की बात नहीं, बल्कि उसका बहाव, उसकी सफ़ाई और उससे ज़रूरतमंदों की मदद करना असली इज़्ज़त है। इस्लाम चाहता है कि खुशी सिर्फ अमीरों तक न रहे, बल्कि ग़रीबी की अंधेरी गलियों में भी पहुँचे—ताकि कोई बच्चा भूख से न रोए, और कोई माँ ग़रीबी की वजह से मायूस न हो।
इस्लाम ने ग़रीब को सिर्फ मदद का हक़दार नहीं माना, बल्कि उसकी खुद्दारी की हिफ़ाज़त को सबसे ऊपर रखा। कोई ऐसा वक़्त नहीं जब इस्लाम ने ग़रीबों को अकेला छोड़ा हो। यही वह मज़हब है जो सजदों को इबादत मानता है, लेकिन ग़रीब का हक़ अदा न करने वाले साजिद (सजदा करने वाले) को रियाकार (दिखावा करने वाला) कह देता है। यही इस्लाम की असली खूबसूरती है—जो दिलों को जोड़ता है, हाथों को मदद के लिए उठाता है, और समाज को ऐसा जिस्म बनाता है कि अगर एक हिस्सा तकलीफ़ में हो, तो पूरा जिस्म बेचैन हो जाए।
क़ुर्बानी का मांस: एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक संतुलन का प्रतीक
क़ुर्बानी केवल एक जानवर को ज़बह (बलि) कर देने का नाम नहीं है; यह एक गहरा संदेश है—एक तहज़ीबी रिवायत, रूहानी समर्पण, और समाज में इंसाफ़ और बराबरी कायम करने की ख़ूबसूरत मिसाल। इसकी असल रूह ना खून बहाने में है और ना ही सिर्फ़ गोश्त खाने में, बल्कि इसमें वो गहरे मायने छुपे हैं जो इंसान को एक अकेला प्राणी नहीं, बल्कि एक ज़िम्मेदार और जुड़ा हुआ समाज का हिस्सा बनाते हैं।
क़ुर्बानी के ये दिन, हज के दिनों से जुड़े होते हैं—वो दिन जब काबा की फ़िज़ा “लब्बैक अल्लाहुम्म लब्बैक” की सदाओं से गूंजती है। लेकिन हर इंसान हज पर नहीं जा सकता। न सबके पास वो साधन होते हैं, और न ही दुनिया के सभी मुसलमान एक ही जगह जमा हो सकते हैं। इसलिए इस्लाम ने हर घर, हर बस्ती को मक्का की उस रूहानी फ़िज़ा में शामिल करने के लिए क़ुर्बानी को ज़रिया बनाया।
इस्लाम ने क़ुर्बानी के ज़रिए हर मुसलमान को यह मौक़ा दिया कि वह हज के इन दिनों में, अपनी नियत और अपने अमल से, उसी अल्लाह की इबादत में शरीक हो सके।
क़ुर्बानी के गोश्त की तीन हिस्सों में तक़सीम:
पहला हिस्सा: अपने लिए
यह हिस्सा उस मोहब्बत और लगाव को ज़ाहिर करता है जो इंसान और जानवर के बीच पैदा हो जाता है। इस गोश्त को खाना सिर्फ़ स्वाद के लिए नहीं, बल्कि अल्लाह की नेमत पर शुक्र अदा करने के लिए है। इस्लाम हमें सिखाता है कि इबादत का मतलब सिर्फ़ दुनिया को छोड़ देना नहीं, बल्कि अल्लाह की दी हुई नेमतों से संतुलन और शुक्र के साथ फ़ायदा उठाना भी इबादत है।
दूसरा हिस्सा: रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए
यह हिस्सा रिश्तों को मज़बूत करता है। आज की तेज़ बहाव ज़िंदगी में जहाँ रिश्ते कमज़ोर हो जाते हैं, मुलाकातें नहीं हो पातीं, वहां एक थाली गोश्त की, एक दावत, रिश्तों की डोर को फिर से जोड़ सकती है। यह हिस्सा मोहब्बत और मील-जूल को बढ़ावा देता है।
तीसरा हिस्सा: ग़रीबों और ज़रूरतमंदों के लिए
इस हिस्से में इस्लाम का असली इंसाफ़, रहम, और भाईचारा झलकता है। इस्लाम ग़रीब को भिखारी नहीं बनाता, बल्कि उसे हक़दार बनाता है। वो मज़दूर जो रोज़ कमाकर खाता है, वो यतीम जो बरसों से गोश्त का स्वाद नहीं जानता—उनके लिए ये गोश्त इज़्ज़त और हिस्सेदारी का तोहफ़ा बन जाता है।
यह केवल “देने” का नहीं, “देखने” का अमल है
इस्लाम कहता है कि क़ुर्बानी सिर्फ़ एक रस्म नहीं, बल्कि हमें देखना है कि हमारे आसपास कौन ज़रूरतमंद है, कौन भूखा है, कौन अकेला है—ताकि कोई अल्लाह की दी हुई इस दावत से महरूम न रह जाए।
अगर कोई व्यक्ति इस गोश्त को सिर्फ़ फ्रीज़र में रख दे या बिना नियत के बाँट दे, तो उस क़ुर्बानी की रूह मर जाती है। इस्लाम के अनुसार, अल्लाह को गोश्त या खून नहीं पहुँचता, बल्कि तुम्हारी “परहेज़गारी” (तक़्वा) पहुँचती है।
क़ुरान में है: “अल्लाह को न उनका गोश्त पहुँचता है, न खून, बल्कि तुम्हारा तक़्वा (परहेज़गारी) ही अल्लाह तक पहुँचता है।”
(सूरह अल-हज्ज, आयत 37)
इसीलिए इस्लाम ने इन दिनों में रोज़ा रखने से भी मना किया है—ताकि हर कोई, अमीर हो या ग़रीब, अल्लाह की नेमतों में शामिल हो सके। यह अल्लाह की ओर से अपने बंदों के लिए मेहमानवाज़ी है, जहां वो कहता है: “मेरे बंदो! खाओ, बाँटो, खुशियाँ मनाओ—लेकिन याद रखो, यह सब मेरी ख़ुशी के लिए है, और इसका हिसाब भी लिया जाएगा।”
क़ुर्बानी सिर्फ़ एक अमल नहीं, एक पैग़ाम है—प्यार का, त्याग का, और उस तक़्वा का जिससे दिल रोशन होते हैं और समाज में संतुलन पैदा होता है। इस्लाम की ये हिकमत, इसकी व्यवस्था, और इसकी संवेदनशीलता—दुनिया में किसी और सोच से मेल नहीं खा सकती। यह दीन वही हो सकता है जो “रब-उल-आलमीन” ने उतारा हो—जो इंसान के हर दर्द को जानता है और हर दिल की धड़कन से वाक़िफ़ है।
तो आइए, इस क़ुर्बानी को एक रस्म न समझें, बल्कि इसे एक सच्चा पैग़ाम बनाएं—इंसानियत का, मुहब्बत का और उस परहेज़गारी का, जो हमारे अमल को अल्लाह की बारगाह में कबूल कराती है।