ज़कात अदा करना आपका फ़र्ज़ है — गरीबों की तौहीन ना करें
मोहम्मद बुरहानुद्दीन कासमी
मोहतरम दौलतमंद मुसलमानों से गुज़ारिश
ज़कात इस्लाम के पाँच बुनियादी स्तंभों में से एक अहम स्तंभ है — यह एक फ़र्ज़-ए-ऐन (व्यक्तिगत अनिवार्य कर्तव्य) है, जो नमाज़ अदा करने और रमज़ान के रोज़ों की तरह ही ज़रूरी है। यह आपकी निजी ज़िम्मेदारी है कि आप ज़कात के हक़दारों की पहचान करें और अपनी मेहनत और संसाधनों से उन्हें ज़कात पहुँचाएं।
अल्लाह तआला ने आपको दौलत से नवाज़ा है और आपको ज़कात देने वालों में शामिल किया है, न कि लेने वालों में। उसने आपके हाथों को देने के लिए ऊपर उठाया है, जबकि वह चाहता तो आपको मांगने वालों के हाथों में भी डाल सकता था।
जब कोई ज़रूरतमंद व्यक्ति या किसी मदरसे का नुमाइंदा (प्रतिनिधि) आपके पास ज़कात के लिए आए तो हकीक़त में वह आपका बोझ हल्का कर रहा होता है — वह आपको आपका इस्लामी फ़र्ज़ पूरा करने में मदद कर रहा होता है। अगर आपके पास देने के लिए कुछ है तो उसे अदब, इनसानियत और ख़ुलूस के साथ पेश करें। अगर आप देने में असमर्थ हैं तो नरमी और सम्मान के साथ माफ़ी माँग लें।
हालाँकि, किसी ज़रूरतमंद की तौहीन करना या उसे ज़लील करना न इस्लामी तौर पर जायज़ है और न ही नैतिक रूप से उचित। इसी तरह अपनी दरियादिली दिखाने के लिए तस्वीरें खिंचवाना या वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया पर फैलाना भी बेहद निंदनीय हरकत है, जो ज़कात लेने वालों की इज़्ज़त-ए-नफ़्स (स्वाभिमान) को ठेस पहुँचाती है। याद रखें, वे आपकी ज़कात अपनी ख़ुशी से नहीं बल्कि मजबूरी में क़ुबूल कर रहे होते हैं। कोई भी इंसान खुशी-खुशी ग़रीबी को गले नहीं लगाता और न ही किसी को दूसरों की दया पर जीने में सुकून मिलता है।
याद रखें कि आज जो दौलत आपके पास है, वह अल्लाह तआला की दी हुई अमानत है — जो किसी भी वक़्त आपसे छीनी जा सकती है। अपनी मौजूदा दौलत और सेहत पर घमंड करना नासमझी और गुनाह है। अगर आप ग़रीबों को सब्र और इज़्ज़त के साथ कुछ नहीं दे सकते तो इससे बेहतर है कि इस दिखावे और रियाकारी के तमाशे को ही बंद कर दें।
मैं ये अल्फ़ाज़ आज पेश आए एक तकलीफ़देह वाक़िए के बाद लिख रहा हूँ। एक दौलतमंद व्यक्ति ने ज़कात माँगने आए लोगों से बहुत बदतमीज़ी की। उसके नौकरों ने भी सख़्त और बेमुरव्वत रवैया अपनाया। सबसे दर्दनाक मंजर वो बुजुर्ग महिला थीं, जो अपनी मजबूरी पर आँसू बहा रही थीं। वह बहुत ही कमज़ोर हालत में थीं और ऊपर से रोज़े से भी थीं।
अगर ऐसे मजबूर इंसान की फ़रियाद अल्लाह तआला के दरबार में पहुँच जाए और वह बद्दुआ बन जाए, तो दुनिया की सारी दौलत भी उस नुक़सान की भरपाई के लिए नाकाफी होगी।
अगर आप इज़्ज़त और आदर के साथ देने का सलीका नहीं रखते और आपमें सब्र व सहनशीलता नहीं है, तो बेहतर यही है कि अपनी ज़कात की तक़सीम को ही रोक दें, बजाय इसके कि किसी इंसान की इज़्ज़त-ए-नफ़्स को ठेस पहुँचाएं और उनके दिलों को दुख पहुँचाएं।
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